Gathering at Kargil Chowk, Patna during fast

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ANNA HAZARE JINDABAAD

Sunday, October 23, 2011

किसानों के पलायन का यह पक्ष

आशीष कुमार ‘अंशु’

श्रम और धन के बीच के रिश्ते इतने गहरे हैं, पलायन के संदर्भ में इस बात को भोपाल की संस्था 'विकास संवाद' के परिसंवाद में शामिल होने से पहले समझना थोड़ा मुश्किल था. साधारण शब्दों में जब समाज के अंदर श्रम का महत्व कम हुआ और पूंजी का महत्व बढ़ा, उसी दौरान समाज के ही अंदर एक और परिवर्तन तेजी से हो रहा था. माने शहर और गांव का अंतर तेजी से बढ़ रहा था. शहर के पास पूंजी की ताकत थी और गांव के पास श्रम की शक्ति.
किसान

देश के जो योजनाकार देश की तरक्की की पटकथा लिख रहे थे, उन्होंने ही श्रम बेचने वालों की भूमिका भिखारी की लिखी और इस कहानी में धन को नियामक बनाया गया खरीदने का और देश के महानगर पूंजी माने सत्ता के केन्द्र बने. लेन-देन की प्रथाएं धीरे-धीरे समाज से गायब हुईं.

श्रम से जुड़ा हुआ काम सम्मानजनक नहीं है, ना जाने कैसे यह बात प्रचारित हुई और कॉलर को सफेद रखकर किए जाने वाले कामों के प्रति लोगों का रूझान बढ़ा. गांव से होने वाले पलायन के पीछे की एक वजह यह रही होगी कि गांव में रहने वाले लोगों ने विचार किया होगा कि उनके श्रम को सम्मान नहीं मिल रहा. कुल मिलाकर सारी बात श्रम को बेचकर पैसा कमाने तक सीमित है तो जो अधिक पैसे दे रहा है, उसे ही श्रम बेचा जाए.

यदि कोई शोध छात्र गंभीरता से पलायन पर पूंजी के महत्व को केन्द्र में रखकर अध्ययन करे तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि जैसे-जैसे देश में पूंजी का महत्व बढ़ा है. गांव से शहर की तरफ पलायन भी बढ़ा है. सिक्किम के मंगन क्षेत्र जो हाल में ही भूकंप से प्रभावित हुआ और अंडमान -निकोबार द्वीप में पलायन दूसरे हिस्सों की तरह नजर नहीं आता. बस्तर के लोगों का विश्वास भी पलायन में नहीं रहा. उनके लिए अपना गांव छोड़ने की वजह नक्सल संघर्ष है. इन इलाकों में पलायन नहीं होने की वजह साफ है कि यहां अभी भी मानवीय रिश्तों पर पैसों का वजन भारी नहीं हुआ है.

आज बुंदेलखंड के किसान पिपरमिन्ट, पान और परवल जैसी संवेदनशील खेती कर रहे हैं. चूंकि वे किसान हैं, इसलिए सफेद कॉलर वालों के बीच में कम समझदार माने जाते हैं. खेती जो पहले प्रतिष्ठा से जुड़ा हुआ काम था, उसे आज की तारीख में हमने मजबूरी का दूसरा नाम बना दिया. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की रिपोर्ट ही कहती है कि देश के लगभग आधे किसान खेती छोड़ देना चाहते हैं. देश के लिए योजना बनाने वाली इकाई को इस बात की फिक्र है? यदि होती तो वह गांव से करोड़ों लोगों के पलायन को गंभीरता से नहीं लेता ? इस बात की क्या वजह हो सकती है कि देश के पास गांव से शहर की तरफ पलायन को लेकर स्पष्ट आंकड़े नहीं हैं.

2011 की जनगणना में पलायन के गंभीरता की थोड़ी सी झलक मिलती है. परिणाम चौंकाने वाले हैं. 90 सालों के बाद पिछले एक दशक में गांव के मुकाबले इस बार शहरी जनसंख्या में अधिक लोग जुड़े हैं. वरिष्ठ पत्रकार पी. साईनाथ लिखते हैं- “हमारे गांव की आबादी इस समय 83.31 करोड़ है. यह पिछले दशक की ग्रामीण जनसंख्या की तुलना में 9.06 करोड़ ज्यादा है. लेकिन दिलचस्प यह है कि शहरी आबादी में 9.10 करोड़ का इजाफा हुआ है.”

अखिल भारतीय सजीव खेती से जुड़े भारतेन्दु प्रकाश बुंदेलखंड में 1783 का जिक्र करते हुए कहते हैं- “वह बड़ा अकाल था. लाखों लोग उससे प्रभावित हुए. लेकिन 1790 आते-आते सात सालों में समाज ने खुद को फिर से संभाल लिया. इसका पता उस समय इंग्लैंड से आए शोधार्थियों की एक दल की रिपोर्ट से चलता है, जिन्होंने तब के सीपी एंड बरार के दमोह के एक गांव के लिए लिखा है कि वहां बड़ा अमन चैन था. पहले गांव से किसी घर में धुआं उठता नहीं दिखता था तो पड़ोसी जाकर पूछते थे कि घर में आज खाना क्यों नहीं बना है? उस पड़ोसी के खाने का इंतजाम कैसे होगा, इसकी चिन्ता पूरा गांव करता था.”

आज यह बात गांव तक पहुंच गई है कि पड़ोसी कितनी जल्दी अपना घर छोड़कर जाए तो हम अपने घर की दीवार थोड़ी और बढ़ा लें. इसी लूट की मानसिकता का परिणाम है कि कबरई और ओरछा की प्राकृतिक संपदा का नाश किया जा रहा है. इनकी संपदा ही इनकी दुश्मन बनती जा रही है.

भारतेन्दु प्रकाश बुंदेलखंड के अंदर 1783 में आए अकाल और आज के अकाल की तुलना करते हुए कहते हैं, -“इस बार जब बुंदेलखंड अकाल से जुझ रहा था, बड़ी संख्या में लोगों ने अपने घरों से पलायन किया. आत्महत्या उन किसानों ने की, जिनके लिए अपना घर छोड़ना मुश्किल था. जो पलायन नहीं करना चाहते थे. घर छोड़ने से आसान उनके लिए प्राण छोड़ना था, इसलिए प्राण छोड़ दिए, घर नहीं छोड़ा.”

भारतेन्दु का यह कथन और दिल्ली से प्रकाशित एक दैनिक समाचार पत्र की एक खोजपरक खबर - ‘दिल्ली के विकास के लिए बुंदेलखंड को पलायन जारी रखना होगा’ मानों एक पल के लिए आमने-सामने खड़े हो गए हों और एक दूसरे से जवाब मांग रहे हों.

दिल्ली के खाड़ी बावड़ी से छपने वाले लुगदी साहित्य के ‘क्या आप जानते हैं’ अंदाज में बात को आगे बढ़ाया जाए तो कैसा रहेगा? क्या आप जानते हैं ?
-योजना आयोग के एक सदस्य के हवाले से, देश के योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह ने स्वयं स्वीकार किया कि पलायन की गंभीर समस्या के साइड इफेक्ट से वे ठीक-ठीक वाकिफ नहीं थे.

- आज जेट युग का हम दम भर रहे हैं और देश की बड़ी आबादी आज भी कार और बाइक पर नहीं बल्कि बैलगाड़ी, भैंसागाड़ी और घोड़ागाड़ी पर यात्रा कर रही है.

- मध्य प्रदेश के पुनर्वास विभाग के सचिव के पास राज्य से विस्थापितों के आंकड़े मौजूद नहीं हैं. ऊपर से साहब फर्माते हैं कि “आंकड़ा इकट्ठा करना हमारा काम नहीं है.” वे यह भी बताने को तैयार नहीं हैं कि यह किसका काम है.

- एनएसी की सदस्य अरुणा राय अपने लंबे संघर्ष के बावजूद मनरेगा मजदूरों के लिए एक संगठन पंजीकृत नहीं करवा पाईं.

- वाल्टर फर्नाडिस के जिन साढ़े तीन करोड़ पलायन वाले आंकड़ों को जगह-जगह इस्तेमाल किया जाता है, उसे लेकर वाल्टर खुद मानते हैं कि आंकड़े आधिकारिक नहीं हैं.

- क्या आप जानते हैं कि दिल्ली में जिन डेढ़ लाख बेघर लोगों को सड़क पर रात बितानी पड़ती है, उनमें पैंतीस फीसदी आबादी मुस्लिम है. शेष में नब्बे फीसदी दलित और पिछड़ी जाति के लोग हैं.

- दिल्ली में सभी लोगों को अपना घर उपलब्ध कराने के लिए लगभग तेरह लाख नए घरों की जरूरत है.

- बारहवीं पंचवर्षीय योजना की बड़ी चिन्ता निर्माण क्षेत्र में मजदूरों की कमी है. चूंकि जिस समाज से श्रम आता रहा है, उनका रूझान धीरे-धीरे शिक्षा की तरफ बढ़ रहा है.

Monday, October 17, 2011

GM Free Bihar Movement Rejects BRAI Bill



Patna, October 16, 2011: The GM Free Bihar Movement today rejected the Biotechnology Regulatory Authority of India (BRAI) Bill as anti-people and anti-nature, saying that the Bihar Government should also pitch in immediately to stall the Bill before it becomes a law. At a dharna held at the Kargil Chowk, farmers and activists also started a signature campaign against the Bill which they said denied State Governments their authority over Agriculture and Health, which are primarily state subjects. 

They felt that besides other failings, there is urgent need to review the Bill before its introduction to the Parliament so that the interests of farmers could be protected and that the Bill should be introduced not by the Ministry of Science and Technology but by the Ministry of Health or Ministry of Environment & Forests. 

The speakers at the protest also attacked the Bill for its attempts to bypass the citizens’ Right to Information, as they said, “This Bill, through Section 28, expressly seeks to classify some information as Confidential Commercial Information and leaves it to the discretion of officials of the Authority to share or not share this information.”

“This is regressive, given that the Bt brinjal controversy saw express Supreme Court orders to the regulators asking them to put out all the biosafety data in the public domain,” said Rekha Modi, a Senior Activist from Bihar. She further said that the Bill has very weak penal clauses and does not address liability issues at all.

“The bill will affect our farmers, it will hit our villages. But even then it does not provide for consultation with people at our panchayat levels which is most shocking," said Pankaj Bhushan, the convener of the GM Free Bihar Movement. 

Bhushan said Indian farmers have lakhs of varieties of crops developed through their knowledge that will be under threat if the bill in present form becomes law. “That is what we are protesting because we want our farmers, our nature to be protected for they are our real wealth with which we are born,” he added. 

Even the noted agricultural scientist M S Swaminathan recently criticised the proposed Biotechnology Regulatory Authority of India (Brai) bill, saying it is against the spirit of Father of Nation Mahatma Gandhi and decentralised governance.

The GM Free Bihar Movement also pointed to a recent press release issued by Senior National Advisory Council Member & associated with The National Campaign for People’s Right to Information (NCPRI) Ms. Aruna Roy, who too criticized the BRAI Bill for total lack of transparency and being an antidote to RTI.
Activist & member GM Free Bihar Movement, Prakash Bablu said The BRAI Bill is also a regrettable attempt to curtail spaces for people’s participation and democratic oversight in decisions that could affect the lives of the entire population of our country.
The fact that this Bill has been listed for introduction in Parliament with no discussion of its contents in the public domain is an indication of the intent to push this bill through without discussion and debate, said Prof. Nawal Kishore, from Patna University, Patna. He further added that whole system has come under the control of Corporates, so such movement is required to save ourselves.
Social Worker Archna Sharma said this bill will end our food choice in near future.
Pankaj Bhushan
Convener, GM Free Bihar Movement
National Co Convener, Alliance for Sustainable & Holitic Agriculture (ASHA)
9472999999


Monday, October 10, 2011

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Songs on the Right to Food by Anand Panini ( Links have been provided below with lyrics attached as a file attachment) -  Gandhi Tere Desh Mein  |  Roti Kaise Banti Hai? |  Mera Desh Bhookha Hain | Download songs
Thanks.
Pankaj 




Friday, October 7, 2011

ग्रामीण भारत की लूट

पटना, 8 अक्तूबर 2011.
प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले योजना आयोग ने उच्चतम न्यायालय में हलफनामा दाखिल किया है कि भारत के शहरी क्षेत्रों में ३२ रु. और ग्रामीण इलाकों में २६ रु. प्रतिदिन आमदनी वाला व्यक्ति निर्धन नहीं है. इसपर देशव्यापी तीखी प्रतिक्रिया हुई है. एक ओर भारत विश्व की आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है और दूसरी ओर देश की ७७ फीसदी आबादी २० रु. प्रतिदिन से निम्न आय पर गुजारा कर रही है. ८ फीसदी की वृद्धिदर से अर्थव्यवस्था संचालित हो रही है किन्तु सकल घरेलू उत्पाद की यह वृद्धि ऊपर के १० फीसदी तक ही सीमित हो गयी है. प्रधानमंत्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष भारत को जिस दिशा में ले जा रहें हैं वह संविधान की प्रस्तावना में दर्ज समाजवादी समाजरचना की ओर निश्चित ही नहीं जा रही है.
देश में हकदारी के भिन्न-भिन्न मानदंड हैं. संगठित वर्ग के लिए परिवार के लिए भरण पोषण का आधार माना जाता है जिसके अनुसार छठवें वेतन आयोग के तहत न्यूनतम १५ हजार रु. प्रतिमाह वेतन बनता है. असंगठित वर्ग के लिए व्यक्तिगत भरन पोषण को आधार माना गया है जिसके तहत लगभग १२५ रु. प्रतिदिन का पारिश्रमिक तय होता है. गरीबी रेखा को तय करने में जो भी मानदंड अपनाये गये हैं वे योजना आयोग के दिमाग की उपज है. संविधान के अनुछेद १४ में सभी नागरिकों के लिए कानून के समान संरक्षण की बात कही गयी है. मानवधिकारों की विश्वव्यापी घोषणा के अनुछेद २३(३) में सभी को पारिवारिक वेतन की पात्रता का प्रावधान है. अमेरिका में ८ डॉलर प्रतिघंटा और ब्रिटेन में ५ पौंड प्रतिघंटा की दर से न्यूनतम पारिश्रमिक निर्धारित है जो परिवार की आवश्यकता पर आधारित है. भारतीय संविधान के अनुच्छेद ४३ में खेतिहर मजदूर, अन्य श्रमिक और किसान के लिए निर्वाह मजदूरी का उल्लेख है. कदाचित इसी के तहत भारत में असंगठित वर्ग को उनकी वाजिब हकदारी का लगभग एक पंचमांश (मात्र २०%) वेतन दिया जाता है. देश में बढ़ रही गैर-बराबरी और ग्रामीण आबादी में बढ़ रही कंगाली का यही मूलभूत कारण है.
खाद्द्यान्न का समर्थन मूल्य तय करने में किसान के पारिश्रमिक की गणना भी अन्यायपूर्ण तरीके से करके वाजिब धनराशि का पंचमांश (मात्र २०%) शामिल किया जाता है. देश के लगभग ५ लाख गांवों का व्यवस्थित तरीके से शोषण हो रहा है और लूट की यह राशि संगठित वर्ग की झोली में एकत्र हो रही है. नेता, अफसर, कम्पनियाँ और बिचौलिए लूट का अधिकांश समेट कर विदेशी बैंकों में उसे जमा कर लेते हैं.
भ्रष्टाचार और कुशासन से मुक्ति तथा विदेशी बैंकों में जमा काले धन की वापसी के लिए देश में चल रहा आन्दोलन वास्तव में ग्रामीण भारत की लूट में शामिल वर्ग के विरुद्ध है. व्यवस्था परिवर्तन से इस लूट पर अंकुश लगेगा और ग्रामीण भारत में खुशहाली लौटेगी.
ब्रिटिश हुकूमत की बुनियाद खेतिहर समाज से लगान के रूप में उगाही तथा जंगलों की कटाई से कमाई पर टिकी थी. विधिवत कानून बनाकर शोषणकारी व्यवस्था कायम की गयी थी. १५ अगस्त १९४७ को सत्ता के हस्तांतरण से जो आजादी मिली उसने देश की व्यवस्था को नहीं बदला. संविधान तो बन गया किन्तु उसके भाग चार के आलोक में अंग्रेजी हुकूमत के कानूनों का अनुकूलन नहीं हुआ. आज भी अंग्रेजों के बनाये ३५० कानून प्रचलन में हैं और असंगठित वर्ग की आबादी वाले ग्रामीण समाज का शोषण विधिवत चल रहा है. शहरी झुग्गी झोपड़ियों में ग्रामीण गरीबी का विस्तार हमें दीखता है. यह वर्ग भी असंगठित श्रमिकों में शामिल है तथा अपनी वाजिब हकदारी के पंचमांश में गुजारा करने को मजबूर हैं.
भारत में राजाश्रय प्राप्त १०% संगठित वर्ग द्वारा ९०% असंगठित और उपेक्षित वर्ग का शोषण करके उनके मानवाधिकारों का हनन किया जा रहा है. इस शोषण में संलग्न वर्ग ही व्यवस्था के हर महत्वपूर्ण पदों पर आसीन है इसलिए इस अन्याय के विरुद्ध चुप्पी का षड़यंत्र दीखता है.

Wednesday, September 14, 2011

A promise fulfilled, ………….. but my fight against corruption will go on

Tuesday, September 13, 2011

http://nitishspeaks.blogspot.com/2011/09/promise-fulfilled-but-my-fight-against.html

I am writing after a long time. As a matter of fact, it is the first occasion since the results of the Bihar assembly election came out in November last year that I am sharing my thoughts with you.
It tickles me to be connecting with you again through this blog. I would begin by thanking the people of the state for their wholehearted support and unflinching faith in our government.
Many people from different parts of the world asked me in the past few months as to why I stopped writing my blogs. To be honest, I had not stopped writing this blog altogether. I was just waiting for a worthwhile moment to connect with you online. Now, that time has come.
Last week, our government finally demonstrated something that I had been rather passionate about all the while We have opened a primary school in the house of a senior government official facing a disproportionate assets case. Last Thursday, we shifted a primary school for underprivileged children into this house in Patna, seized under the Bihar Special Courts Act which our government had enacted last year.
This building, confiscated recently by the Patna district administration following a directive from a special court trying corruption cases in the state, was handed over to the Human Resources Department which subsequently converted it into a primary school in no time.
This Act empowers the competent authority to confiscate the movable and immovable property of a public servant even during the trial. Our government has set up six special courts for the speedy trials in corruption cases.
Such was a moment I had been patiently waiting for all these months to resume my blog writing. When it finally happened I decided to share my thoughts with you.
The opening of a school in this building is no ordinary event, to say the least In fact, this has happened for the very first time in the country. It embodies our government’s resolve to address corruption, even as it is being touted as a practicable measure to deal with incidences of corruption.
The basic objective of the state's anti-graft legislation is to instill a sense of fear in the minds of corrupt public servants. I think the provision for the confiscation of the assets of the accused will act as a deterrent among the public servants indulging in unscrupulous practices to earn wealth. When they see that their property earned through corrupt practices is ultimately seized by the government, they will realise the futility of amassing wealth. Our aim is to inflate the component of “loss” to such deterrent levels that it automatically defeats the notion of “gain” that impels people into dubious and corrupt pursuits to amass wealth.
Before this Act came into force, corruption cases against public servants used to drag on for years. In fact, the accused used to hire the best of lawyers to fight their cases while enjoying the fruits of their ill-gotten money. There was no law for the confiscation of their property during trial.
The bid to confiscate the property of the corrupt public servants had started soon after the setting up of the fast-track courts but it got delayed because of the legal processes involved. When the special courts ordered confiscation of property of a few accused, they moved the superior courts to seek stay. But the decks were recently cleared for opening a school in one of the buildings owned by an accused after the Patna High Court upheld the validity of the Act.
This should serve as a warning to all those public servants who have acquired ill-gotten money In the coming months, many more buildings are likely to be seized and turned into schools, night shelters or any centre related to public utility across Bihar.
I find it useful here to dispel doubts about who would constitute a public servant. I think that the nature and scale of public role and responsibility being handled by an individual must be the key to deciding his /her categorization as a public servant. Clearly thus, peoples’ representatives like MLAs, MPs, and ministers, besides the category of officials would fall under the “public servant’ nomenclature.
During my assembly election rallies last year, I had made a promise to the people of Bihar I had told them that I would open schools in the buildings of the corrupt public servants. When it finally happened this week I thought I had fulfilled my promise.
But that does not mean that our government had not been doing anything to tame the scourge of corruption since winning the elections last year. We took many landmark initiatives to minimize red-tapism and check corruption at all levels. Firstly, I decided to put the details of my assets as well as those of the members of the council of ministers on the official website of the state government.
This was followed by the decision of our government to make it mandatory for all government employees, up to Group III staff, to declare their assets on the official websites. From the Chief Secretary to all the Group III employees, everybody subsequently posted the details of their property on the government websites.
I also decided to get the Local Area Development Fund of legislators abolished because it had come under the cloud. There were several complaints about the way this scheme was executed across the state. I thought it was better to abolish this fund altogether and introduce an alternate, more transparent scheme involving the legislators to ensure all-round growth of the state.
During my visits to different parts of Bihar, I am often confronted with people complaining about corruption at the grassroots level. They complain about difficulties in getting work done at government offices. They allege that they have to pay bribes for things like caste and income certificates to driving licenses and police verification for getting passports, etc.
With a view to checking it, our government last month enacted the Right to Public Service Act which ensured completion of work related to public services within fixed timeframes. This law came into force on the Independence Day this year. Under this Act, the government officials have to dispose of the people’s applications related to public utility services within a stipulated period. There is also a provision under this Act for imposition of fine on the defaulters for any delay on their part. We have now ensured that our people do not have to run around the offices and grease the palms of the public servants to get their work done. All they have to do is submit their applications and wait for their work to be done within the time-frame fixed by the government.
Now, I am working towards making the institution of Lokayukta more effective and broad-based in the state. Bihar has had a Lokayukta since 1973 but I feel there is a need for giving it more powers. I am also in favour of bringing the Chief Minister under its ambit. We are already working on the draft to bring about an amendment bill in the winter session of the state legislature.
These are a few steps that I have taken as part of my fight against corruption I can assure you that this fight will go on in the future as well. There has been widespread support from people across the country for the campaigns against corruption in recent times. It proves that the people in general are disgusted by the menace of corruption that appears to have made inroads into all spheres of public life.
We, therefore, need effective legislations more than ever before Confiscation of assets of the corrupt is one small step in that direction. This will restore the faith of the common man in the system of governance, encourage law-enforcing agencies to act against the corrupt and deter those who believe in acquiring ill-gotten wealth. If we have to stamp out corruption we will have to take steps like these everywhere to achieve our goal.
Before I conclude, let me also briefly touch upon two of our novel initiatives. Firstly, the number of beneficiaries under the bicycle scheme for school students has now exceeded 6 lakh, including 2.25 lakh boys, in the state. As you know, this project was initially launched only for schoolgirls, but was later extended to schoolboys as well. At start, the government had distributed bicycles among 1.50 lakh girls. This number has gone up to 3.75 lakh now.
I would also like to talk about the Harit Bihar (Greener Bihar) campaign we have recently launched in the state. Under this campaign, both the state government and our party, Janata Dal (United), have resolved to increase the forest cover to at least 15 per cent by planting saplings across the state in a big way, and instituting measures to see these plants grow into trees. I think it is time that generations of today demonstrate their commitment to act and protect our environment.
 
I look forward to your views.

Nitish Kumar

 

Monday, September 12, 2011

अब रेल यात्रा से अलख जगाएंगे अन्ना

भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाने वाले अन्ना हजारे ने अब एलान किया है कि वह अगले महीने से देश भर की रेल यात्रा पर निकलेंगे। अन्ना अब जन लोकपाल बिल के साथ-साथ चुनाव सुधारों के मसले पर भी जनजागरण का अभियान शुरू कर चुके हैं। अन्ना के गांव रालेगण सिद्धि में टीम अन्ना की दो दिवसीय बैठक में दूसरे दिन यह फैसला किया गया। बैठक के बाद टीम अन्ना के सदस्य अरविंद केजरीवाल ने बताया कि अन्ना ने कहा है, वह अगले महीने ही रेलयात्रा शुरू करेंगे। इसका मकसद चुनाव सुधारों और भ्रष्टाचार जैसे मसलों पर जनता को संघर्ष के अगले दौर के लिए तैयार करना माना जा रहा है।
टीम अन्ना ने विरोधियों के दुष्प्रचार का जवाब देने का भी एलान किया। केजरीवाल ने बताया कि अन्ना की कोर टीम के सभी सदस्यों की संपत्ति का ब्योरा अगले महीने की 15 तारीख तक सार्वजनिक कर दिया जाएगा।
दिग्गी के बयान पर कड़ी प्रतिक्रिया
इस बीच कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह के बयानों पर कड़ी प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए टीम अन्ना ने कहा कि झूठे आरोप लगाना उनकी आदत हो गई है। प्रशांत भूषण ने कहा कि टीम अन्ना पर लगाए उनके आरोपों के लिए उन्हें लीगल नोटिस भिजवाया जाएगा। केजरीवाल ने कहा कि हमने अन्ना हजारे के नाम पर कोई चंदा नहीं लिया है।


अन्ना के आंदोलन से आगे का रास्ता


अनशन तोड़ने के 48 घंटे बाद ही प्रधानमंत्री ने अन्ना हजारे को फूलों के गुलदस्ते के साथ 'गेट वैल सून' का कार्ड भेजा था। संकेत यही निकला अन्ना बीमार है और मनमोहन सिंह अन्ना की तबियत को लेकर चिंतित हैं। लेकिन तेरह दिनों के अन्ना के आंदोलन के दौर में जो सवाल रामलीला मैदान से खड़े हुए उसने देश के भीतर सीधे संकेत यही दिये कि कहीं ना कहीं बीते बीस बरस में सरकार बीमार रही और समूची व्यवस्था की तबियत ही इसने बिगाड़ रखा है। और अब जब जनलोकपाल संसद के भीतर दस्तक दे रहा है तो फिर संसद में दस्तक देते कई सवाल दोबारा खड़े हो रहे हैं, जिसे बीते बीस बरस में हाशिये पर ढकेल दिया गया था।
तीन मुद्दो पर संसद का ठप्पा लगाने के बाद जो सवाल अन्ना हजारे ने अनशन तोड़ने से पहले खड़े किये वह नये नहीं हैं। राईट टू रिकाल और राईट टू रिजक्ट का सवाल पहले भी चुनाव सुधार के दायरे उठे हैं । चुनाव आयोग ने ही दागी उम्मीदवारो की बढ़ती तादाद के मद्देनजर राईट टू रिजेक्ट का सवाल सीधे यह कहकर उठाया था कि कोई उम्मीदवार पसंद नहीं तो ठप्पा लगाने वाली सूची में एक खाली कॉलम भी होना चाहिये। लेकिन संसद ने यह कहकर उसे ठुकरा दिया कि यह नकारात्मक वोटिंग को बढावा देगा।

अन्ना के किसान प्रेम के भीतर खेती की जमीन हड़पने के बाजारी खेल का सवाल भी बीते बीस बरस में संसद के भीतर बीस बार से ज्यादा बार उठ चुका है। भूमि- सुधार का सवाल बीस बरस पहले पीवी नरसिंह राव के दौर में उसी वक्त उठा था जब आर्थिक सुधार की लकीर खींची जा रही थी। लेकिन इन बीस बरस में फर्क यही आया 1991 में खेती की जमीन को न को बचाते हुये व्यवसायिक तौर पर जमीन के उपयोग की लकीर खींचने की बात थी। मगर 2011 में खेती की जमीन को हथियाते हुये रियल-इस्टेट के धंधे को चमकाने और माल से लेकर स्पेशल इक्नामी जोन बनाने के लिये समूचा इन्फ्रास्ट्रचर खड़ा करने पर जोर है। जिसमें किसान की हैसियत कम या ज्यादा मुआवजा देकर पल्ला झाड़ने वाला है। अन्ना हजारे अदालतों के खौफ को न्यायपालिका में सुधार के साथ बदलना चाहते हैं। लेकिन यह सवाल भी बीते बीस बरस में दर्जनो बार संसद में दस्तक दे चुका है। लेकिन हर बार यह न्याय मिलने में देरी या जजो की कमी के आसरे ही टिका रहा।

यह सवाल पहले कभी खड़ा नहीं हुआ कि न्यायपालिका के दामन पर भी दाग लग रहे है और उसमें सुधार की कहीं ज्यादा जरुरत है। इस बार भी संसद इससे सीधे दो दो हाथ करने से बचना चाहती है। वहीं गांव स्तर पर खाकी का डर किसी भी ग्रामीण में कितना समाया होता है, उसका जिक्र अगर अन्ना हजारे कर रहे हैं और उसमें सुधार चाहते हैं तो संसद के भीतर खाकी का सवाल भी कोई आज का किस्सा का नहीं है। वोहरा कमेटी की रिपोर्ट ने तो खाकी के समूचे खेल को ही आइना दिखाते हुये पुलिस सुधार की मोटी लकीर खींची। यानी अन्ना हजारे के सवालों से संसद रुबरु नहीं है, यह सोचना बचकानापन ही होगा। और देश के आम आदमी इसे नहीं जानते समझते होगें यह समझना भी बचकानापन ही होगा।

असल सवाल यही से खड़ा होता है कि अन्ना एक तरफ बीमार व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिये संसद को आंदोलन का आइना दिखाते हैं तो दूसरी तरफ प्रधानमंत्री फूलों का गुलदस्ता भेज कर अन्ना को बीमारी से जल्दी उबरने का कामना करते हुये भी नजर आते हैं। तो देश चल कैसे रहा है। अगर इसकी नब्ज सियासत तले सामाजिक परिस्थितियों में पकड़ें तो देश के कमोवेश सभी कामधेनू पद आज भी बिकते हैं। चाहे वह पुलिस की पोस्टिंग हो। कोई खास थाना या फिर कोई खास जिला। इंजीनियर किसी भी स्तर का हो कुछ खास क्षेत्रो से लेकर कुछ पदो की बोली हर महीने कमाई या फिर सरकारी बजट को लेकर बिकती है। समूची हिन्दी पट्टी में संयोग से सबसे बुरी गत सिंचाई विभाग की है। यही आलम स्वास्थ्य अधिकारी का है जो सरकारी बजट की रकम को किस मासूमियत से हडप सकता है और कैसे राजनेताओ की भागेदारी कर सकता है, यह हुनर ही रकम डकारते हुये भ्रष्ट्राचार की नयी परिभाषा गढ़ने में काम आती है। सरलता से समझे तो उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन में मोतियाबिंद आपरेशन के नाम पर हडपे गये 3200 करोड रुपये से समझा जा सकता है जिसमें ऑपरेशन किसी का नहीं हुआ लेकिन एनजीओ के जरीये वोटरो की सूची जोड़ कर सबकुछ सफल बना दिय गया।

इसी तरह पद क्षेत्रीय ट्रासपोर्ट अफसर का भी बिकता है। सबसे मंहगा पद तो सबसे न्यूनतम जरुरत की लूट के हुनर के साथ जुड़ा का है। और वह है जिले का फूड सप्लाई ऑफीसर। यानी जिन हाथो से देश की न्यूनतम जरुरत को पूरा करने के लिये संसद में हर दिन पहला घंटा सवाल जवाब में जाता है कैबिनेट से लेकर संसद में बिल पास कराने की जद्दोजहद से लेकर बजट देने में ही सरकार लगी होती है, जब संसद के बाहर सारा खेल ही उसे लूटने के लिये रचा जाता है तो फिर रास्ता जाता किधर है। अगर सरकार के आंकड़ों को ही देखें तो देश के 70 करोड से ज्यादा लोगों में अनाज बांटने के लिये बनाये पीडीएस सिस्टम की कहानी चंद शब्दो में यही है कि सिर्फ दस फिसदी जरुरतमंदों तक ही अनाज पहुंच पाता है। बाकि 43 फिसदी सरकारी व्यवस्था के छेद से निकलकर कहीं और पहुंच जाता है। 47 फिसदी राजनेताओ का ताकत तले बांटने की व्यवस्था को ही चंद हथेलियो में डालकर मुनाफा बनाने के खेल में खेला जाता है। अगर इसी खाके में सरकार के खाद्द सुरक्षा बिल को डाल दिया जाये तो क्या होगा। इसे समझने से पहले जरा दिल्ली और देश में भ्रष्टाचार की लूट को सामांनातर देखने का हुनर आना चाहिये। नेशनल फूड सिक्योरिटी बिल की उपज सोनिया गांधी की अगुवाई वाले राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की है। जो चाहती रही है देश का एपीएल तबके की भी इसमें शुमार हो। लेकिन मनमोहन सरकार की अगुवाई वाले योजना आयोग ने पहली लड़ाई इसी बात को लेकर शुरु की कि इससे सरकारी खजाने पर जहरदस्त बोझ पड़ेगा। और संसद में इस बिल के दस्तक देने से पहले अभी भी लगता यही है कि बीपीएल और एपीएल की लडाई में ही यह विधेयक अटका रहा। सवाल है कि किसी भी हालत में जैसे ही यह बिल लागू होगा, देश में सबसे ज्यादा लाभ उसी व्यवस्था को होना है जो राजनेताओ की वर्दहस्त में समूची लूट प्रणाली से खाद्य आपूर्ति प्रणाली को हडपे हुये है। क्योंकि देश में सबसे ज्यादा लूट अगर बीते बीस बरस में किसी वस्तु की हुई है तो वह अनाज की लूट है। और इसी दौर में जो वस्तु राजनीतिक चुनाव में सबसे ज्यादा मुप्त या कौड़ियों के मोल लुटाई गई वह भी अनाज ही है।

तो नेशनल फूड सिक्यूरटी बिल का इंतजार इस वक्त कौन कर रहा है? राजनेता, नौकरशाह, ट्रासपोर्टर और फूड सप्लाई विभाग के साथ साथ फूड सप्लाई कारपोरेशन के अधिकारी। यानी जिन अस्सी करोड़ लोगों के लिये विकास का कोई मंत्र सरकार के पास नहीं है, पहली बार उसी बहुसंख्यक तबके की न्यूनतम जरुरत से लेकर उसके जीवन जीने का माध्यम भी अंतराष्ट्रीय बाजार में बोली लगवाकर बेचे जा रही है। इसलिये सवाल यह नहीं है कि गांव का जो पटवारी बीस बरस पहले खेती की जमीन को व्यवसायिक जमीन में बदलने की एवज में सौ रुपये लेता था अब वह बढ़कर औसतन पचास हजार पहुंच चुका है। और अन्ना हजारे इसी निचले स्तर के भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिये संसद से सिद्धांत: सहमति लेकर अनशन तोड़ने पर राजी हो गये। बल्कि संकट यह है कि सरकार की नीतियों तले बीते दस बरस 175 लाख करोड़ से ज्यादा की खनिज संपदा से लेकर खेती की जमीन को कौडियों के मोल चंद हाथो में सौप दिया गया। और इस लूट प्रणाली को रोकने के लिये कोई सरकार अपने कदम बढ़ा नही सकती क्योंकि सरकार चुनने और बनने की दिशा भी इस दौर में उन्ही आधारो पर जा टिकी है जो लूट प्रणाली चलाते हैं। ऐसे में सवाल सिर्फ अन्ना के आंदोलन से संसद को हड़काने का नहीं है। सवाल उस नयी धारा को बनाने का भी है जिसमें प्रधानमंत्री के गेट वैल सून का जवाब राजनीतिक तौर पर अन्ना हजारे भी गेट वैल सून का कार्ड भेज कर प्रधानमंत्री को इसका एहसास कराये कि बीमार वह नहीं बीमार व्यवस्था है जो ठीक नहीं हुई तो आने वाले दौर में आंदोलन सिर्फ संसद को हड़कायेंगे नहीं बल्कि डिगा भी सकते हैं। लेकिन सवाल है यह राजनीतिक पहल होगी और क्या सिविल सोसायटी इसके लिये तैयार है?