Gathering at Kargil Chowk, Patna during fast

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ANNA HAZARE JINDABAAD
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Monday, September 12, 2011

अन्ना के आंदोलन से आगे का रास्ता


अनशन तोड़ने के 48 घंटे बाद ही प्रधानमंत्री ने अन्ना हजारे को फूलों के गुलदस्ते के साथ 'गेट वैल सून' का कार्ड भेजा था। संकेत यही निकला अन्ना बीमार है और मनमोहन सिंह अन्ना की तबियत को लेकर चिंतित हैं। लेकिन तेरह दिनों के अन्ना के आंदोलन के दौर में जो सवाल रामलीला मैदान से खड़े हुए उसने देश के भीतर सीधे संकेत यही दिये कि कहीं ना कहीं बीते बीस बरस में सरकार बीमार रही और समूची व्यवस्था की तबियत ही इसने बिगाड़ रखा है। और अब जब जनलोकपाल संसद के भीतर दस्तक दे रहा है तो फिर संसद में दस्तक देते कई सवाल दोबारा खड़े हो रहे हैं, जिसे बीते बीस बरस में हाशिये पर ढकेल दिया गया था।
तीन मुद्दो पर संसद का ठप्पा लगाने के बाद जो सवाल अन्ना हजारे ने अनशन तोड़ने से पहले खड़े किये वह नये नहीं हैं। राईट टू रिकाल और राईट टू रिजक्ट का सवाल पहले भी चुनाव सुधार के दायरे उठे हैं । चुनाव आयोग ने ही दागी उम्मीदवारो की बढ़ती तादाद के मद्देनजर राईट टू रिजेक्ट का सवाल सीधे यह कहकर उठाया था कि कोई उम्मीदवार पसंद नहीं तो ठप्पा लगाने वाली सूची में एक खाली कॉलम भी होना चाहिये। लेकिन संसद ने यह कहकर उसे ठुकरा दिया कि यह नकारात्मक वोटिंग को बढावा देगा।

अन्ना के किसान प्रेम के भीतर खेती की जमीन हड़पने के बाजारी खेल का सवाल भी बीते बीस बरस में संसद के भीतर बीस बार से ज्यादा बार उठ चुका है। भूमि- सुधार का सवाल बीस बरस पहले पीवी नरसिंह राव के दौर में उसी वक्त उठा था जब आर्थिक सुधार की लकीर खींची जा रही थी। लेकिन इन बीस बरस में फर्क यही आया 1991 में खेती की जमीन को न को बचाते हुये व्यवसायिक तौर पर जमीन के उपयोग की लकीर खींचने की बात थी। मगर 2011 में खेती की जमीन को हथियाते हुये रियल-इस्टेट के धंधे को चमकाने और माल से लेकर स्पेशल इक्नामी जोन बनाने के लिये समूचा इन्फ्रास्ट्रचर खड़ा करने पर जोर है। जिसमें किसान की हैसियत कम या ज्यादा मुआवजा देकर पल्ला झाड़ने वाला है। अन्ना हजारे अदालतों के खौफ को न्यायपालिका में सुधार के साथ बदलना चाहते हैं। लेकिन यह सवाल भी बीते बीस बरस में दर्जनो बार संसद में दस्तक दे चुका है। लेकिन हर बार यह न्याय मिलने में देरी या जजो की कमी के आसरे ही टिका रहा।

यह सवाल पहले कभी खड़ा नहीं हुआ कि न्यायपालिका के दामन पर भी दाग लग रहे है और उसमें सुधार की कहीं ज्यादा जरुरत है। इस बार भी संसद इससे सीधे दो दो हाथ करने से बचना चाहती है। वहीं गांव स्तर पर खाकी का डर किसी भी ग्रामीण में कितना समाया होता है, उसका जिक्र अगर अन्ना हजारे कर रहे हैं और उसमें सुधार चाहते हैं तो संसद के भीतर खाकी का सवाल भी कोई आज का किस्सा का नहीं है। वोहरा कमेटी की रिपोर्ट ने तो खाकी के समूचे खेल को ही आइना दिखाते हुये पुलिस सुधार की मोटी लकीर खींची। यानी अन्ना हजारे के सवालों से संसद रुबरु नहीं है, यह सोचना बचकानापन ही होगा। और देश के आम आदमी इसे नहीं जानते समझते होगें यह समझना भी बचकानापन ही होगा।

असल सवाल यही से खड़ा होता है कि अन्ना एक तरफ बीमार व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिये संसद को आंदोलन का आइना दिखाते हैं तो दूसरी तरफ प्रधानमंत्री फूलों का गुलदस्ता भेज कर अन्ना को बीमारी से जल्दी उबरने का कामना करते हुये भी नजर आते हैं। तो देश चल कैसे रहा है। अगर इसकी नब्ज सियासत तले सामाजिक परिस्थितियों में पकड़ें तो देश के कमोवेश सभी कामधेनू पद आज भी बिकते हैं। चाहे वह पुलिस की पोस्टिंग हो। कोई खास थाना या फिर कोई खास जिला। इंजीनियर किसी भी स्तर का हो कुछ खास क्षेत्रो से लेकर कुछ पदो की बोली हर महीने कमाई या फिर सरकारी बजट को लेकर बिकती है। समूची हिन्दी पट्टी में संयोग से सबसे बुरी गत सिंचाई विभाग की है। यही आलम स्वास्थ्य अधिकारी का है जो सरकारी बजट की रकम को किस मासूमियत से हडप सकता है और कैसे राजनेताओ की भागेदारी कर सकता है, यह हुनर ही रकम डकारते हुये भ्रष्ट्राचार की नयी परिभाषा गढ़ने में काम आती है। सरलता से समझे तो उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन में मोतियाबिंद आपरेशन के नाम पर हडपे गये 3200 करोड रुपये से समझा जा सकता है जिसमें ऑपरेशन किसी का नहीं हुआ लेकिन एनजीओ के जरीये वोटरो की सूची जोड़ कर सबकुछ सफल बना दिय गया।

इसी तरह पद क्षेत्रीय ट्रासपोर्ट अफसर का भी बिकता है। सबसे मंहगा पद तो सबसे न्यूनतम जरुरत की लूट के हुनर के साथ जुड़ा का है। और वह है जिले का फूड सप्लाई ऑफीसर। यानी जिन हाथो से देश की न्यूनतम जरुरत को पूरा करने के लिये संसद में हर दिन पहला घंटा सवाल जवाब में जाता है कैबिनेट से लेकर संसद में बिल पास कराने की जद्दोजहद से लेकर बजट देने में ही सरकार लगी होती है, जब संसद के बाहर सारा खेल ही उसे लूटने के लिये रचा जाता है तो फिर रास्ता जाता किधर है। अगर सरकार के आंकड़ों को ही देखें तो देश के 70 करोड से ज्यादा लोगों में अनाज बांटने के लिये बनाये पीडीएस सिस्टम की कहानी चंद शब्दो में यही है कि सिर्फ दस फिसदी जरुरतमंदों तक ही अनाज पहुंच पाता है। बाकि 43 फिसदी सरकारी व्यवस्था के छेद से निकलकर कहीं और पहुंच जाता है। 47 फिसदी राजनेताओ का ताकत तले बांटने की व्यवस्था को ही चंद हथेलियो में डालकर मुनाफा बनाने के खेल में खेला जाता है। अगर इसी खाके में सरकार के खाद्द सुरक्षा बिल को डाल दिया जाये तो क्या होगा। इसे समझने से पहले जरा दिल्ली और देश में भ्रष्टाचार की लूट को सामांनातर देखने का हुनर आना चाहिये। नेशनल फूड सिक्योरिटी बिल की उपज सोनिया गांधी की अगुवाई वाले राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की है। जो चाहती रही है देश का एपीएल तबके की भी इसमें शुमार हो। लेकिन मनमोहन सरकार की अगुवाई वाले योजना आयोग ने पहली लड़ाई इसी बात को लेकर शुरु की कि इससे सरकारी खजाने पर जहरदस्त बोझ पड़ेगा। और संसद में इस बिल के दस्तक देने से पहले अभी भी लगता यही है कि बीपीएल और एपीएल की लडाई में ही यह विधेयक अटका रहा। सवाल है कि किसी भी हालत में जैसे ही यह बिल लागू होगा, देश में सबसे ज्यादा लाभ उसी व्यवस्था को होना है जो राजनेताओ की वर्दहस्त में समूची लूट प्रणाली से खाद्य आपूर्ति प्रणाली को हडपे हुये है। क्योंकि देश में सबसे ज्यादा लूट अगर बीते बीस बरस में किसी वस्तु की हुई है तो वह अनाज की लूट है। और इसी दौर में जो वस्तु राजनीतिक चुनाव में सबसे ज्यादा मुप्त या कौड़ियों के मोल लुटाई गई वह भी अनाज ही है।

तो नेशनल फूड सिक्यूरटी बिल का इंतजार इस वक्त कौन कर रहा है? राजनेता, नौकरशाह, ट्रासपोर्टर और फूड सप्लाई विभाग के साथ साथ फूड सप्लाई कारपोरेशन के अधिकारी। यानी जिन अस्सी करोड़ लोगों के लिये विकास का कोई मंत्र सरकार के पास नहीं है, पहली बार उसी बहुसंख्यक तबके की न्यूनतम जरुरत से लेकर उसके जीवन जीने का माध्यम भी अंतराष्ट्रीय बाजार में बोली लगवाकर बेचे जा रही है। इसलिये सवाल यह नहीं है कि गांव का जो पटवारी बीस बरस पहले खेती की जमीन को व्यवसायिक जमीन में बदलने की एवज में सौ रुपये लेता था अब वह बढ़कर औसतन पचास हजार पहुंच चुका है। और अन्ना हजारे इसी निचले स्तर के भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिये संसद से सिद्धांत: सहमति लेकर अनशन तोड़ने पर राजी हो गये। बल्कि संकट यह है कि सरकार की नीतियों तले बीते दस बरस 175 लाख करोड़ से ज्यादा की खनिज संपदा से लेकर खेती की जमीन को कौडियों के मोल चंद हाथो में सौप दिया गया। और इस लूट प्रणाली को रोकने के लिये कोई सरकार अपने कदम बढ़ा नही सकती क्योंकि सरकार चुनने और बनने की दिशा भी इस दौर में उन्ही आधारो पर जा टिकी है जो लूट प्रणाली चलाते हैं। ऐसे में सवाल सिर्फ अन्ना के आंदोलन से संसद को हड़काने का नहीं है। सवाल उस नयी धारा को बनाने का भी है जिसमें प्रधानमंत्री के गेट वैल सून का जवाब राजनीतिक तौर पर अन्ना हजारे भी गेट वैल सून का कार्ड भेज कर प्रधानमंत्री को इसका एहसास कराये कि बीमार वह नहीं बीमार व्यवस्था है जो ठीक नहीं हुई तो आने वाले दौर में आंदोलन सिर्फ संसद को हड़कायेंगे नहीं बल्कि डिगा भी सकते हैं। लेकिन सवाल है यह राजनीतिक पहल होगी और क्या सिविल सोसायटी इसके लिये तैयार है?