Gathering at Kargil Chowk, Patna during fast

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ANNA HAZARE JINDABAAD

Friday, October 7, 2011

ग्रामीण भारत की लूट

पटना, 8 अक्तूबर 2011.
प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले योजना आयोग ने उच्चतम न्यायालय में हलफनामा दाखिल किया है कि भारत के शहरी क्षेत्रों में ३२ रु. और ग्रामीण इलाकों में २६ रु. प्रतिदिन आमदनी वाला व्यक्ति निर्धन नहीं है. इसपर देशव्यापी तीखी प्रतिक्रिया हुई है. एक ओर भारत विश्व की आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है और दूसरी ओर देश की ७७ फीसदी आबादी २० रु. प्रतिदिन से निम्न आय पर गुजारा कर रही है. ८ फीसदी की वृद्धिदर से अर्थव्यवस्था संचालित हो रही है किन्तु सकल घरेलू उत्पाद की यह वृद्धि ऊपर के १० फीसदी तक ही सीमित हो गयी है. प्रधानमंत्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष भारत को जिस दिशा में ले जा रहें हैं वह संविधान की प्रस्तावना में दर्ज समाजवादी समाजरचना की ओर निश्चित ही नहीं जा रही है.
देश में हकदारी के भिन्न-भिन्न मानदंड हैं. संगठित वर्ग के लिए परिवार के लिए भरण पोषण का आधार माना जाता है जिसके अनुसार छठवें वेतन आयोग के तहत न्यूनतम १५ हजार रु. प्रतिमाह वेतन बनता है. असंगठित वर्ग के लिए व्यक्तिगत भरन पोषण को आधार माना गया है जिसके तहत लगभग १२५ रु. प्रतिदिन का पारिश्रमिक तय होता है. गरीबी रेखा को तय करने में जो भी मानदंड अपनाये गये हैं वे योजना आयोग के दिमाग की उपज है. संविधान के अनुछेद १४ में सभी नागरिकों के लिए कानून के समान संरक्षण की बात कही गयी है. मानवधिकारों की विश्वव्यापी घोषणा के अनुछेद २३(३) में सभी को पारिवारिक वेतन की पात्रता का प्रावधान है. अमेरिका में ८ डॉलर प्रतिघंटा और ब्रिटेन में ५ पौंड प्रतिघंटा की दर से न्यूनतम पारिश्रमिक निर्धारित है जो परिवार की आवश्यकता पर आधारित है. भारतीय संविधान के अनुच्छेद ४३ में खेतिहर मजदूर, अन्य श्रमिक और किसान के लिए निर्वाह मजदूरी का उल्लेख है. कदाचित इसी के तहत भारत में असंगठित वर्ग को उनकी वाजिब हकदारी का लगभग एक पंचमांश (मात्र २०%) वेतन दिया जाता है. देश में बढ़ रही गैर-बराबरी और ग्रामीण आबादी में बढ़ रही कंगाली का यही मूलभूत कारण है.
खाद्द्यान्न का समर्थन मूल्य तय करने में किसान के पारिश्रमिक की गणना भी अन्यायपूर्ण तरीके से करके वाजिब धनराशि का पंचमांश (मात्र २०%) शामिल किया जाता है. देश के लगभग ५ लाख गांवों का व्यवस्थित तरीके से शोषण हो रहा है और लूट की यह राशि संगठित वर्ग की झोली में एकत्र हो रही है. नेता, अफसर, कम्पनियाँ और बिचौलिए लूट का अधिकांश समेट कर विदेशी बैंकों में उसे जमा कर लेते हैं.
भ्रष्टाचार और कुशासन से मुक्ति तथा विदेशी बैंकों में जमा काले धन की वापसी के लिए देश में चल रहा आन्दोलन वास्तव में ग्रामीण भारत की लूट में शामिल वर्ग के विरुद्ध है. व्यवस्था परिवर्तन से इस लूट पर अंकुश लगेगा और ग्रामीण भारत में खुशहाली लौटेगी.
ब्रिटिश हुकूमत की बुनियाद खेतिहर समाज से लगान के रूप में उगाही तथा जंगलों की कटाई से कमाई पर टिकी थी. विधिवत कानून बनाकर शोषणकारी व्यवस्था कायम की गयी थी. १५ अगस्त १९४७ को सत्ता के हस्तांतरण से जो आजादी मिली उसने देश की व्यवस्था को नहीं बदला. संविधान तो बन गया किन्तु उसके भाग चार के आलोक में अंग्रेजी हुकूमत के कानूनों का अनुकूलन नहीं हुआ. आज भी अंग्रेजों के बनाये ३५० कानून प्रचलन में हैं और असंगठित वर्ग की आबादी वाले ग्रामीण समाज का शोषण विधिवत चल रहा है. शहरी झुग्गी झोपड़ियों में ग्रामीण गरीबी का विस्तार हमें दीखता है. यह वर्ग भी असंगठित श्रमिकों में शामिल है तथा अपनी वाजिब हकदारी के पंचमांश में गुजारा करने को मजबूर हैं.
भारत में राजाश्रय प्राप्त १०% संगठित वर्ग द्वारा ९०% असंगठित और उपेक्षित वर्ग का शोषण करके उनके मानवाधिकारों का हनन किया जा रहा है. इस शोषण में संलग्न वर्ग ही व्यवस्था के हर महत्वपूर्ण पदों पर आसीन है इसलिए इस अन्याय के विरुद्ध चुप्पी का षड़यंत्र दीखता है.

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