Gathering at Kargil Chowk, Patna during fast

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ANNA HAZARE JINDABAAD

Sunday, October 23, 2011

किसानों के पलायन का यह पक्ष

आशीष कुमार ‘अंशु’

श्रम और धन के बीच के रिश्ते इतने गहरे हैं, पलायन के संदर्भ में इस बात को भोपाल की संस्था 'विकास संवाद' के परिसंवाद में शामिल होने से पहले समझना थोड़ा मुश्किल था. साधारण शब्दों में जब समाज के अंदर श्रम का महत्व कम हुआ और पूंजी का महत्व बढ़ा, उसी दौरान समाज के ही अंदर एक और परिवर्तन तेजी से हो रहा था. माने शहर और गांव का अंतर तेजी से बढ़ रहा था. शहर के पास पूंजी की ताकत थी और गांव के पास श्रम की शक्ति.
किसान

देश के जो योजनाकार देश की तरक्की की पटकथा लिख रहे थे, उन्होंने ही श्रम बेचने वालों की भूमिका भिखारी की लिखी और इस कहानी में धन को नियामक बनाया गया खरीदने का और देश के महानगर पूंजी माने सत्ता के केन्द्र बने. लेन-देन की प्रथाएं धीरे-धीरे समाज से गायब हुईं.

श्रम से जुड़ा हुआ काम सम्मानजनक नहीं है, ना जाने कैसे यह बात प्रचारित हुई और कॉलर को सफेद रखकर किए जाने वाले कामों के प्रति लोगों का रूझान बढ़ा. गांव से होने वाले पलायन के पीछे की एक वजह यह रही होगी कि गांव में रहने वाले लोगों ने विचार किया होगा कि उनके श्रम को सम्मान नहीं मिल रहा. कुल मिलाकर सारी बात श्रम को बेचकर पैसा कमाने तक सीमित है तो जो अधिक पैसे दे रहा है, उसे ही श्रम बेचा जाए.

यदि कोई शोध छात्र गंभीरता से पलायन पर पूंजी के महत्व को केन्द्र में रखकर अध्ययन करे तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि जैसे-जैसे देश में पूंजी का महत्व बढ़ा है. गांव से शहर की तरफ पलायन भी बढ़ा है. सिक्किम के मंगन क्षेत्र जो हाल में ही भूकंप से प्रभावित हुआ और अंडमान -निकोबार द्वीप में पलायन दूसरे हिस्सों की तरह नजर नहीं आता. बस्तर के लोगों का विश्वास भी पलायन में नहीं रहा. उनके लिए अपना गांव छोड़ने की वजह नक्सल संघर्ष है. इन इलाकों में पलायन नहीं होने की वजह साफ है कि यहां अभी भी मानवीय रिश्तों पर पैसों का वजन भारी नहीं हुआ है.

आज बुंदेलखंड के किसान पिपरमिन्ट, पान और परवल जैसी संवेदनशील खेती कर रहे हैं. चूंकि वे किसान हैं, इसलिए सफेद कॉलर वालों के बीच में कम समझदार माने जाते हैं. खेती जो पहले प्रतिष्ठा से जुड़ा हुआ काम था, उसे आज की तारीख में हमने मजबूरी का दूसरा नाम बना दिया. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की रिपोर्ट ही कहती है कि देश के लगभग आधे किसान खेती छोड़ देना चाहते हैं. देश के लिए योजना बनाने वाली इकाई को इस बात की फिक्र है? यदि होती तो वह गांव से करोड़ों लोगों के पलायन को गंभीरता से नहीं लेता ? इस बात की क्या वजह हो सकती है कि देश के पास गांव से शहर की तरफ पलायन को लेकर स्पष्ट आंकड़े नहीं हैं.

2011 की जनगणना में पलायन के गंभीरता की थोड़ी सी झलक मिलती है. परिणाम चौंकाने वाले हैं. 90 सालों के बाद पिछले एक दशक में गांव के मुकाबले इस बार शहरी जनसंख्या में अधिक लोग जुड़े हैं. वरिष्ठ पत्रकार पी. साईनाथ लिखते हैं- “हमारे गांव की आबादी इस समय 83.31 करोड़ है. यह पिछले दशक की ग्रामीण जनसंख्या की तुलना में 9.06 करोड़ ज्यादा है. लेकिन दिलचस्प यह है कि शहरी आबादी में 9.10 करोड़ का इजाफा हुआ है.”

अखिल भारतीय सजीव खेती से जुड़े भारतेन्दु प्रकाश बुंदेलखंड में 1783 का जिक्र करते हुए कहते हैं- “वह बड़ा अकाल था. लाखों लोग उससे प्रभावित हुए. लेकिन 1790 आते-आते सात सालों में समाज ने खुद को फिर से संभाल लिया. इसका पता उस समय इंग्लैंड से आए शोधार्थियों की एक दल की रिपोर्ट से चलता है, जिन्होंने तब के सीपी एंड बरार के दमोह के एक गांव के लिए लिखा है कि वहां बड़ा अमन चैन था. पहले गांव से किसी घर में धुआं उठता नहीं दिखता था तो पड़ोसी जाकर पूछते थे कि घर में आज खाना क्यों नहीं बना है? उस पड़ोसी के खाने का इंतजाम कैसे होगा, इसकी चिन्ता पूरा गांव करता था.”

आज यह बात गांव तक पहुंच गई है कि पड़ोसी कितनी जल्दी अपना घर छोड़कर जाए तो हम अपने घर की दीवार थोड़ी और बढ़ा लें. इसी लूट की मानसिकता का परिणाम है कि कबरई और ओरछा की प्राकृतिक संपदा का नाश किया जा रहा है. इनकी संपदा ही इनकी दुश्मन बनती जा रही है.

भारतेन्दु प्रकाश बुंदेलखंड के अंदर 1783 में आए अकाल और आज के अकाल की तुलना करते हुए कहते हैं, -“इस बार जब बुंदेलखंड अकाल से जुझ रहा था, बड़ी संख्या में लोगों ने अपने घरों से पलायन किया. आत्महत्या उन किसानों ने की, जिनके लिए अपना घर छोड़ना मुश्किल था. जो पलायन नहीं करना चाहते थे. घर छोड़ने से आसान उनके लिए प्राण छोड़ना था, इसलिए प्राण छोड़ दिए, घर नहीं छोड़ा.”

भारतेन्दु का यह कथन और दिल्ली से प्रकाशित एक दैनिक समाचार पत्र की एक खोजपरक खबर - ‘दिल्ली के विकास के लिए बुंदेलखंड को पलायन जारी रखना होगा’ मानों एक पल के लिए आमने-सामने खड़े हो गए हों और एक दूसरे से जवाब मांग रहे हों.

दिल्ली के खाड़ी बावड़ी से छपने वाले लुगदी साहित्य के ‘क्या आप जानते हैं’ अंदाज में बात को आगे बढ़ाया जाए तो कैसा रहेगा? क्या आप जानते हैं ?
-योजना आयोग के एक सदस्य के हवाले से, देश के योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह ने स्वयं स्वीकार किया कि पलायन की गंभीर समस्या के साइड इफेक्ट से वे ठीक-ठीक वाकिफ नहीं थे.

- आज जेट युग का हम दम भर रहे हैं और देश की बड़ी आबादी आज भी कार और बाइक पर नहीं बल्कि बैलगाड़ी, भैंसागाड़ी और घोड़ागाड़ी पर यात्रा कर रही है.

- मध्य प्रदेश के पुनर्वास विभाग के सचिव के पास राज्य से विस्थापितों के आंकड़े मौजूद नहीं हैं. ऊपर से साहब फर्माते हैं कि “आंकड़ा इकट्ठा करना हमारा काम नहीं है.” वे यह भी बताने को तैयार नहीं हैं कि यह किसका काम है.

- एनएसी की सदस्य अरुणा राय अपने लंबे संघर्ष के बावजूद मनरेगा मजदूरों के लिए एक संगठन पंजीकृत नहीं करवा पाईं.

- वाल्टर फर्नाडिस के जिन साढ़े तीन करोड़ पलायन वाले आंकड़ों को जगह-जगह इस्तेमाल किया जाता है, उसे लेकर वाल्टर खुद मानते हैं कि आंकड़े आधिकारिक नहीं हैं.

- क्या आप जानते हैं कि दिल्ली में जिन डेढ़ लाख बेघर लोगों को सड़क पर रात बितानी पड़ती है, उनमें पैंतीस फीसदी आबादी मुस्लिम है. शेष में नब्बे फीसदी दलित और पिछड़ी जाति के लोग हैं.

- दिल्ली में सभी लोगों को अपना घर उपलब्ध कराने के लिए लगभग तेरह लाख नए घरों की जरूरत है.

- बारहवीं पंचवर्षीय योजना की बड़ी चिन्ता निर्माण क्षेत्र में मजदूरों की कमी है. चूंकि जिस समाज से श्रम आता रहा है, उनका रूझान धीरे-धीरे शिक्षा की तरफ बढ़ रहा है.

Monday, October 17, 2011

GM Free Bihar Movement Rejects BRAI Bill



Patna, October 16, 2011: The GM Free Bihar Movement today rejected the Biotechnology Regulatory Authority of India (BRAI) Bill as anti-people and anti-nature, saying that the Bihar Government should also pitch in immediately to stall the Bill before it becomes a law. At a dharna held at the Kargil Chowk, farmers and activists also started a signature campaign against the Bill which they said denied State Governments their authority over Agriculture and Health, which are primarily state subjects. 

They felt that besides other failings, there is urgent need to review the Bill before its introduction to the Parliament so that the interests of farmers could be protected and that the Bill should be introduced not by the Ministry of Science and Technology but by the Ministry of Health or Ministry of Environment & Forests. 

The speakers at the protest also attacked the Bill for its attempts to bypass the citizens’ Right to Information, as they said, “This Bill, through Section 28, expressly seeks to classify some information as Confidential Commercial Information and leaves it to the discretion of officials of the Authority to share or not share this information.”

“This is regressive, given that the Bt brinjal controversy saw express Supreme Court orders to the regulators asking them to put out all the biosafety data in the public domain,” said Rekha Modi, a Senior Activist from Bihar. She further said that the Bill has very weak penal clauses and does not address liability issues at all.

“The bill will affect our farmers, it will hit our villages. But even then it does not provide for consultation with people at our panchayat levels which is most shocking," said Pankaj Bhushan, the convener of the GM Free Bihar Movement. 

Bhushan said Indian farmers have lakhs of varieties of crops developed through their knowledge that will be under threat if the bill in present form becomes law. “That is what we are protesting because we want our farmers, our nature to be protected for they are our real wealth with which we are born,” he added. 

Even the noted agricultural scientist M S Swaminathan recently criticised the proposed Biotechnology Regulatory Authority of India (Brai) bill, saying it is against the spirit of Father of Nation Mahatma Gandhi and decentralised governance.

The GM Free Bihar Movement also pointed to a recent press release issued by Senior National Advisory Council Member & associated with The National Campaign for People’s Right to Information (NCPRI) Ms. Aruna Roy, who too criticized the BRAI Bill for total lack of transparency and being an antidote to RTI.
Activist & member GM Free Bihar Movement, Prakash Bablu said The BRAI Bill is also a regrettable attempt to curtail spaces for people’s participation and democratic oversight in decisions that could affect the lives of the entire population of our country.
The fact that this Bill has been listed for introduction in Parliament with no discussion of its contents in the public domain is an indication of the intent to push this bill through without discussion and debate, said Prof. Nawal Kishore, from Patna University, Patna. He further added that whole system has come under the control of Corporates, so such movement is required to save ourselves.
Social Worker Archna Sharma said this bill will end our food choice in near future.
Pankaj Bhushan
Convener, GM Free Bihar Movement
National Co Convener, Alliance for Sustainable & Holitic Agriculture (ASHA)
9472999999


Monday, October 10, 2011

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Songs on the Right to Food by Anand Panini ( Links have been provided below with lyrics attached as a file attachment) -  Gandhi Tere Desh Mein  |  Roti Kaise Banti Hai? |  Mera Desh Bhookha Hain | Download songs
Thanks.
Pankaj 




Friday, October 7, 2011

ग्रामीण भारत की लूट

पटना, 8 अक्तूबर 2011.
प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले योजना आयोग ने उच्चतम न्यायालय में हलफनामा दाखिल किया है कि भारत के शहरी क्षेत्रों में ३२ रु. और ग्रामीण इलाकों में २६ रु. प्रतिदिन आमदनी वाला व्यक्ति निर्धन नहीं है. इसपर देशव्यापी तीखी प्रतिक्रिया हुई है. एक ओर भारत विश्व की आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है और दूसरी ओर देश की ७७ फीसदी आबादी २० रु. प्रतिदिन से निम्न आय पर गुजारा कर रही है. ८ फीसदी की वृद्धिदर से अर्थव्यवस्था संचालित हो रही है किन्तु सकल घरेलू उत्पाद की यह वृद्धि ऊपर के १० फीसदी तक ही सीमित हो गयी है. प्रधानमंत्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष भारत को जिस दिशा में ले जा रहें हैं वह संविधान की प्रस्तावना में दर्ज समाजवादी समाजरचना की ओर निश्चित ही नहीं जा रही है.
देश में हकदारी के भिन्न-भिन्न मानदंड हैं. संगठित वर्ग के लिए परिवार के लिए भरण पोषण का आधार माना जाता है जिसके अनुसार छठवें वेतन आयोग के तहत न्यूनतम १५ हजार रु. प्रतिमाह वेतन बनता है. असंगठित वर्ग के लिए व्यक्तिगत भरन पोषण को आधार माना गया है जिसके तहत लगभग १२५ रु. प्रतिदिन का पारिश्रमिक तय होता है. गरीबी रेखा को तय करने में जो भी मानदंड अपनाये गये हैं वे योजना आयोग के दिमाग की उपज है. संविधान के अनुछेद १४ में सभी नागरिकों के लिए कानून के समान संरक्षण की बात कही गयी है. मानवधिकारों की विश्वव्यापी घोषणा के अनुछेद २३(३) में सभी को पारिवारिक वेतन की पात्रता का प्रावधान है. अमेरिका में ८ डॉलर प्रतिघंटा और ब्रिटेन में ५ पौंड प्रतिघंटा की दर से न्यूनतम पारिश्रमिक निर्धारित है जो परिवार की आवश्यकता पर आधारित है. भारतीय संविधान के अनुच्छेद ४३ में खेतिहर मजदूर, अन्य श्रमिक और किसान के लिए निर्वाह मजदूरी का उल्लेख है. कदाचित इसी के तहत भारत में असंगठित वर्ग को उनकी वाजिब हकदारी का लगभग एक पंचमांश (मात्र २०%) वेतन दिया जाता है. देश में बढ़ रही गैर-बराबरी और ग्रामीण आबादी में बढ़ रही कंगाली का यही मूलभूत कारण है.
खाद्द्यान्न का समर्थन मूल्य तय करने में किसान के पारिश्रमिक की गणना भी अन्यायपूर्ण तरीके से करके वाजिब धनराशि का पंचमांश (मात्र २०%) शामिल किया जाता है. देश के लगभग ५ लाख गांवों का व्यवस्थित तरीके से शोषण हो रहा है और लूट की यह राशि संगठित वर्ग की झोली में एकत्र हो रही है. नेता, अफसर, कम्पनियाँ और बिचौलिए लूट का अधिकांश समेट कर विदेशी बैंकों में उसे जमा कर लेते हैं.
भ्रष्टाचार और कुशासन से मुक्ति तथा विदेशी बैंकों में जमा काले धन की वापसी के लिए देश में चल रहा आन्दोलन वास्तव में ग्रामीण भारत की लूट में शामिल वर्ग के विरुद्ध है. व्यवस्था परिवर्तन से इस लूट पर अंकुश लगेगा और ग्रामीण भारत में खुशहाली लौटेगी.
ब्रिटिश हुकूमत की बुनियाद खेतिहर समाज से लगान के रूप में उगाही तथा जंगलों की कटाई से कमाई पर टिकी थी. विधिवत कानून बनाकर शोषणकारी व्यवस्था कायम की गयी थी. १५ अगस्त १९४७ को सत्ता के हस्तांतरण से जो आजादी मिली उसने देश की व्यवस्था को नहीं बदला. संविधान तो बन गया किन्तु उसके भाग चार के आलोक में अंग्रेजी हुकूमत के कानूनों का अनुकूलन नहीं हुआ. आज भी अंग्रेजों के बनाये ३५० कानून प्रचलन में हैं और असंगठित वर्ग की आबादी वाले ग्रामीण समाज का शोषण विधिवत चल रहा है. शहरी झुग्गी झोपड़ियों में ग्रामीण गरीबी का विस्तार हमें दीखता है. यह वर्ग भी असंगठित श्रमिकों में शामिल है तथा अपनी वाजिब हकदारी के पंचमांश में गुजारा करने को मजबूर हैं.
भारत में राजाश्रय प्राप्त १०% संगठित वर्ग द्वारा ९०% असंगठित और उपेक्षित वर्ग का शोषण करके उनके मानवाधिकारों का हनन किया जा रहा है. इस शोषण में संलग्न वर्ग ही व्यवस्था के हर महत्वपूर्ण पदों पर आसीन है इसलिए इस अन्याय के विरुद्ध चुप्पी का षड़यंत्र दीखता है.